शराब ना छूने की मैंने कसम जो खा रखी है,
आज पानी से ही इक अजब सी उम्मीद लगा रखी है ..
ऐसा लगता है तेरी याद में जिए जा रहा हूँ ,
और "देवदासियत" में पानी ही पिए जा रहा हूँ ..
मकसद इतना है की खुल के तुझे याद कर सकूँ,
फिर एक बार आज खुद को मैं बर्बाद कर सकूँ,
रोक पाएं न ज़माने की नसीहतें कुछ पल ;
मैं खुल के तेरे ख़यालों को आबाद कर सकूँ..
होश में तो तुझे मांगने की हसरत भी मर चुकी है,
बेहोशी में हो सकता है ये फ़रियाद कर सकूँ..
पर अभी..बीते पल फिर एक नया एहसास हुआ है,
के ये ख़याल महज़ खून की रवानी भर थे ..
और ये जो हाथों में थामी है बोतल मैंने;
इससे उम्मीद क्या ये कतरा-ए -पानी भर थे..
देवदासियत का ख़ुमार तो लिखने भर में उतरा..
अब समझ आया ये सब बारिश की बूँदों के असर थे...!!
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